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पता ही नहीं चला(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

पता ही नही चला,और बीत भी गए 11साल,
पापा हमसे बिछड़े हुए,सुनाएं किसको अब हाल???

एक सहजता  का आंगन बाबुल का कहलाता है,
बच्चों की मुस्कान हेतु,वो उनकी हर परेशानी सहलाता है।।

नही जगह ले सकता कोई मात पिता की,ईश्वर उनकी रूह को एक नए साबुन से ही नहलाता है,
फिर भेज देता है पास हमारे,वो जन्मदाता पिता कहलाता है।।

बरगद की घनी छाया है पिता,
सबसे घना सुरक्षा साया है पिता,
सहजता का पर्याय है पिता,
अपनत्व के मंडप में प्रेमअनुष्ठान है पिता,
हर समस्या का समाधान,,हर सवाल का जवाब है पिता,माँ की तरह उसे प्रेम का करना नही आता इज़हार,ऊपर से कठोर, भीतर से नरम,वाह रे पिता का अदभुत प्यार।।
*मैं हूँ न*कहने वाला होता है पिता,
सबसे अच्छी जीवन मे राय है पिता,
पता ही न चला,कब बीत गए 11 साल,
कोई नही पूछता अब क्या है हमारे दिल का हाल।

करबद्ध हम कर रहे परमपिता से यह अरदास,
मिले शांति उनकी दिवंगत आत्मा को,है प्रार्थना ही हमारा प्रयास,
सबकी इस जहां में हैं गिनती की ही शवास,
जितना तेल दीये में होता,उतना ही जीवन प्रकाश।।।

वो बाजरे की खिचड़ी,वो लहुसन की चटनी
वो मिस्सी रोटी की सौंधी सौंधी महक
वो सरसों का साग,वो हलवे की खुशबू
वो छलकते जाम में मचलती हाला,
वो लहुसन के छोंक बिन खाना न निवाला,
वो गेहूं की बोरियां,वो लोगों का आना जाना,
वो ताशों की बाजी,वो हुक्के की गुड़गुड़,
वो जाम उठाने पर रोज़ माँ की बड्ड बड्ड,
वो बन गए थे जीवन का हिस्सा,
कब अचानक निकल गए जीवन से,
पता ही न चला,पता ही न चला।।
आपका नाम भी लिया पा,
आपका काम भी लिया,
बेशक कुछ कमियों के बावजूद भी
व्यक्तित्व आपका बेमिसाल।।
कभी न रोकना,कभी न टोकना
कभी औपचारिकता का दामन न ओढ़ना,
उच्चारण और आचरण में कोई भेद न था,
झूठे आदर्शों का जीवन मे कोई ढोंग न था,
न किया कभी कोई आडम्बर या कोई दिखावा,
न ही व्यर्थ में दिया किसी को कोई छलावा,
कर्मों से कभी तूने हार न मानी
सब सहा हुआ चाहे लाभ या हानि,
खर्चे कम नही,आमदनी बढ़ाओ,
तजो आलस्य,कर्मनाद बजाओ,
हर संभावित संसाधन को बरता,
 नही रखा मन मे कभी मलाल।।
माँ को दी सदा सारी कमाई,
कभी शिकन न माथे पर आई,
उपलब्ध सनसाधनो मे बरकत पाई,
कर्तव्य पथ से न की जुदाई,
आज फिर से तेरी याद आई।।

एक दो करके आज बीत गए पूरे 11साल
समय का पहिया चलता है अपनी ही गति से
पता ही न चला,पता ही न चला।।

              स्नेहप्रेमचंद

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