जन्मदिन पर जन्म देने वाली याद आ ही जाती है,
अपनी जाने कितनी इच्छाएं दबा कर,हमारी हर खुशी को कर पूरा,मुस्कान हमारे लबों पर लाती है,
और कोई नही मेरे दोस्तों,वही तो माँ कहलाती है,
हमारी कितनी ही कमियों को कर नज़रंदाज़
हमे अपने चित्त में बसाती है,
समय बेशक बीता जाए,पर वो याद आ ही जाती है,
और अधिक कुछ नही कहना, बस उसके न होने से सहजता जीवन से दामन चुराती है।।
ईश्वर का पर्याय है माँ,अपनी जान पर खेल कर हमें जग में लाती है।।
जब सब पीछे हट जाते हैं
मां आगे बढ़ कर आती है
बच्चे जो गुण दोषों दोनों संग मां अपनाती है
मुझे तो लगता है मां बनने के बाद मां
मां रूप में ही शेष रह जाती है
जो सबसे ज्यादा नजर आनी चाहिए
वह मां ही अक्सर नजरअंदाज हो जाती है
हर गुस्सा हर आक्रोश निकालते हैं हम मां पर,पर हर हालत में वह पहले जैसी ही हो जाती है
कभी कभी तो लगता है मुझे मां क्या जान बुझ कर गूंगी बहरी हो जाती है
अपनी प्राथमिकताओं को कभी नहीं रखती प्राथमिक,मुख्य से गौण बन जाती है
पर बच्चे ना भूलें अपने कर्तव्य कर्मों को,जाने मां के बाद तो उन्होंने जन्नत की भी ना करी कभी मन्नत,
फिर क्यों जिंदगी के एक मोड़ पर मां उपेक्षित और तन्हा सी हो जाती है
मां के धड़धड़ाती ट्रेन से व्यक्तित्व के आगे थरथराते पुल से बच्चे क्यों कर्तव्य कर्मों को भूले जाते हैं
मां तो देहधारी विधाता है जग में
सत्य ये क्यों समझ नहीं पाते हैं
देश में बढ़ते वृद्धाश्रमों के आंकड़े
सत्य खुद बयान कर जाते हैं
पल भर दूजे कमरे में भी ना छोड़ने वाली मां को कैसे वृद्ध आश्रम में बच्चे छोड़ आते हैं
घर आ कर क्यों उद्वेलित नहीं होता चित उनका,
कैसे चैन से वे सो जाते हैं
इतिहास दोहराता है अक्सर खुद को
ये कैसे भूल सा जाते हैं
क्यों सो जाती है करुणा चित में
मेरी सोच के दायरे तो समझ नहीं पाते हैं
अधिकार तो यू हैं चाहिए सारे
पर जिम्मेदारी उठाने से कतराते हैं
जन्मदिन पर बच्चे के जन्म होता है एक मां का भी
यह सब भूले जाते हैं
अपनी जान पर खेल हमें इस जग में लाने वाली मां के आगे हम शीश झुकाते हैं
स्नेह सम्मान और मधुर बोली का दामन ना छोड़ना कभी मां के आगे
वरना भाग्य के द्वार बंद हो जाते हैं
हमारी हर दुविधा को सुविधा में बदलने वाली मां जैसा नाता भला कहीं और क्या हम पाते हैं
हर और नाता होता है सूरजमुखी से पुष्प सा,जहां स्वार्थ की धूप खिले
वहीं ये नाते मूड जाते हैं
आंगन की तुलसी होती है मां
अनचाहा कहीं भी किसी भी दरार या किसी भी कोने में उगा पीपल का पेड़ नहीं,इस सत्य को क्यों बिसराते हैं
मां हमारी प्रथम गुरु,मित्र,मार्गदर्शक है
उससे बढ़ कर हितैषी कोई भी नहीं,
यह समझने में हम देर लगाते हैं
मां से मंदिर बन जाता है घर
क्यों मां के होते तीर्थ धामों पर हम जाते हैं
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