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बचपन

*भरोसे का धरातल,सपनों का आसमान* जहां सारे का सारा हमरा था
वह बचपन कितना प्यारा था
जहां लड़ते झगड़ते फिर एक हो जाते
वह सच में कितना न्यारा था
जब कुछ भी उलझन होती थी
होती मां की गोदी थी
पिता का सिर पर साया था
ना लगता कोई पराया था
औपचारिकता की सबने अब चिन ली बड़ी बड़ी दीवारें हैं
पार देखना भी चाहें गर हम
बेगानी बेगानी सी मीनारें हैं
तब तेरा मेरा न होता था 
सब का सब कुछ होता था
जहां हमारा सारे का सारा था
वह बचपन कितना प्यारा था
मां इंतजार करती थी
वह सबसे बड़ा सहारा था
बाबुल के सहज से आंगन में
चिड़िया का बसेरा बड़ा दुलारा था
नहीं बोलता था जब कोई अपना
चित में हलचल हो जाती थी
खामोशी करने लग जाती थी कोलाहल
भीड़ में तन्हाई तरन्नुम बजाती थी
किसी न किसी छोटे से बहाने से
मिलन की आवाज आ जाती थी
अहम बड़े छोटे होते थे
सहजता लंबी पींग बढ़ाती थी
आज बैठ में लगी सोचने
बचपन अपना कितना निखारा था
वह बचपन कितना प्यारा था
अपनत्व के तरकश से सब तीर प्रेम के चला ते थे
रूठ जाता था गर कोई
झट से उसे मनाते थे
नहीं ममता था गैर कोई
प्रलोभन से उसे ललचाते थे
लेकिन जीवन की मुख्य धारा में
कैसे न कैसे उसे ले आते थे
दुर्भाव के तमस को बड़ी सहजता से
हर लेता प्रेम भरा उजियारा था
वह बचपन कितना प्यारा था
अभाव का प्रभाव होता था जरूर
जब मिल जाता था कुछ
होता बड़ा गुरूर 
छोटे छोटे से सपनों का होता सुंदर गलियारा था
वह बचपन कितना प्यारा था
अहम से वयम का हम बजा देते थे शंखनाद
छोटी छोटी बातों को नहींरखते थे याद
मां की चूल्हे की रोटी का स्वाद बड़ा ही न्यारा था
भरोसे का धरातल,सपनों का आसमान
सारे का सारा जहान हमारा था
वे बरसते थे जब भी बादल
हम कितने मज़े से नहाते थे
वह कागज की कुश्ती को कितने जतन से पानी में हम चलाते थे




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