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चित निर्मल चितवन भी चारु

चित निर्मल चितवन भी चारु

चेतन भी सुंदर अचेतन भी सुंदर

चित्र भी प्यारा चरित्र भी न्यारा

चम चम चमकी जिंदगी के सफर में

हर चेष्टा भी सच्ची हर चमक भी प्यारी

और परिचय क्या दूं तेरा????

रहती थी बन प्रकृति में हरियाली सी

शब्दों से अधिक दोस्ती नहीं मेरी

वरना बता देती तू थी पर्वों में दिवाली सी

हर अंजुमन की महफिल होती थी अंजु छोटे बड़ों सब के दिल में करती रही बसेरा

अहम से वयम का बजाया सदा ही शंखनाद उसने
कभी ना सोचा ना किया तेरा मेरा

पहर में से देना हो गर नाम कोई
कहूंगी उसे मैं उजला सवेरा

ये वक्त के हाथ से गिरा लम्हा कोई
बना कभी ना भूली जाने वाली दास्तान

निर्मल चित,उम्दा व्यवहार और मधुर बोली रहे  उसकी पहचान

उम्र छोटी पर कर्म बड़े
जिज्ञासा चित में,करुणा दिल में
विवेक का चलता रहा दिमाग में उसके विज्ञान

किसी भी क्रिया के प्रति उसकी प्रतिक्रिया थी उसके व्यवहार की सच्ची पहचान
सोच कर बोलती थी बोल कर नहीं सोचना पड़ता था उसे,
मनोभावों से रहती नहीं थी अंजान

बखूबी जानती भी थी मानती भी थी
जिम्मेदारी संग ही मिलते हैं अधिकार
कुछ करती रही दरगुज़र
कुछ करती रही दरकिनार
एक बात आती है समझ
प्रेम ही रहा उसके हर नाते का आधार

अभाव का प्रभाव बताता है
कोई जीवन में होता है कितना खास
ताउम्र महकती रही अपने कर्तव्य कर्मों से ऐसे
जैसे सुमन में होती है सुवास

उपदेशन जब कहती थी मैं उसे
वह हौले से मंद मंद मुस्कुराती थी
कह देती थी स्वाति है क्या तूं 
अपने संवाद संबोधन से सबको अपना बनाती थी

जाने कहां से सीखी ये कला उसने
परायों को भी पल भर में अपना बना लेती थी
करुणा लेती थी हिलोरें चित में
स्नेह सबको बड़े स्नेह से देती थी

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