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बात अधिकारों की हो ((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

बात अधिकारों की हो,
तो दूर दराज से भी आ जाते हैं बेटे।
बात जिम्मेदारी की हो,
तो पास रह कर भी दूर से हो जाते हैं बेटे।।

इतिहास खुद को दोहराता है सदा,
ये क्यों भूल जाते हैं बेटे???
वक्त के पहिए को कोई थाम नहीं सकता,
क्यों बदलते वक्त से भी सीख नहीं पाते हैं बेटे???

मां बाप पल भर भी जिन्हें आखों से ओझल नहीं होने देते,
उन्हीं मां बाप को तन्हा छोड़ बेफिक्र से, कैसे रह पाते हैं बेटे???

जो मां बाप जिंदगी का परिचय अनुभूतियों से करवाते हैं,
उन्हीं के एहसासों को कैसे पल भर बिसरा देते हैं बेटे???

जिंदगी में हर संज्ञा,अर्वनाम,विशेषण का बोध कराने वाले मात पिता,
 समय संग मुख्य से हो जाते हैं गौण,
ये सब करने वाले भी होते हैं बेटे।।


जो मां बाप क ख ग से शुरू कर जाने क्या क्या शब्दावली सिखाते हैं,
उन्हे ही खामोशी का पाठ कैसे पढ़ा देते हैं बेटे???

क्यों पहले सी आ कर नहीं जिद्द करते,
क्यों नहीं करते वो प्यार मनुहार???
जो उंगली पकड़ कर चलना
 सिखाते हैं,
जीवन की शाम में क्यों बेटे उन्हे देते हैं दुत्कार???
सो जाती हैं संवेदनाएं,बेहिज से हो जाते हैं बेटे।।
बात अधिकारों की हो तो दूर दराज से भी आ जाते हैं बेटे।।

क्यों सो जाती है ज़िम्मेदारी,
और जागृत हो जाते हैं अधिकार???
कर विचरण अंतर्मन के गलियारों में,
हो सके तो, कर लो सुधार।।
वक्त भी बार बार वक्त नहीं देता,
मां बाप से जीत कर भी जाते हैं हार।।

अपने अस्तित्व से हमारे व्यक्तित्व को गढ़ने वाले होते हैं,
 हमारा समूचा संसार।
किसी को जल्दी,किसी को देर से,
आ जाता है समझ इस सत्य का सार।।

समय रहते ही सचेत होना है बहुत ज़रूरी।
जीते जी मात पिता के, मत बनाओ उनसे दूरी।।
          जरा सोचिए।।।
   स्नेह प्रेमचंद

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