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मजहब नहीं सिखाता

मज़हब नही सिखाता आपस मे बैर रखना,बचपन से  ये दिल मे समाया है,
वो फिर कुर्बान हुए लाल माँ भारती के,सब स्तब्ध, मन बेचैन हो आया है,
वो फिर कोई शहीद तिरंगे में लिपट कर,घर अपने लौट कर आया है,
तीन नही,चौथा रंग रक्तिम धब्बे का तिरंगे पर उभर कर आया है।।

जिस घर से जिस भी मां की झोली यूँ असमय ही होती है खाली,
क्या बचा होगा उस मां के चित्त में,हर नज़र बन उठती है सवाली।।

एक ही नही जाता एक घर से,जाने कितने ही सपनों,आशाओं,रिश्तों की होलिका जाती है जल,
आज तक थे जो इस जग में,क्या सोचा था,वो होंगे नही कल।।

पल पल हर पल हुआ रुआंसा है,जैसे किसी ने साज बेबसी का बजाया है,
मज़हब नही सिखाता आपस मे बैर रखना,बचपन से यह दिल मे समाया है।।
वो फिर तिरंगे में लिपट कर शव शहीद का घर उसके आया है।।

बन्द करो ये खून की होली,अंत करो ये आतंकवाद,
जाने कितने बसते आशियानों को और करोगे तुम बर्बाद।।

जीयो और जीने दो की नीति को क्यों इस विश्व ने नही अपनाया है,
सर्वे भवन्तु सुखिनः के भाव को आज के दिन ठुकराया है।।

मज़हब नही सिखाता आपस मे बैर रखना,ये बचपन से दिल मे समाया है,
वोतीन रंग के तिरंगे मे चौथा रंग रक्तिम धब्बे का उभर कर आया है,
फिर कुर्बान हुए लाल माँ भारती के,मन स्तब्ध,हिया अकुलाया है।।

अश्रुपूरित नेत्रों से उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करता है देश ये सारा,
पर उनका यूँ असमय चले जाना,नही हो पाता है हमे गवारा।।

सजल नयन हैं, उन्मन सा मन है,ये कैसी घटना है,
मन द्रवित हो आया है,
मज़हब नही सिखाता आपस मे बैर रखना,ये बचपन से दिल मे समाया है,
 वो फिर तिरंगे में लिपट शव किसी शहीद का घर आया है।।
             स्नेहप्रेमचन्द

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