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परवाज़

पंखों को परवाज़ मिली है और
 सपनों को मिली अनन्त उड़ान।
यही नारी की परिभाषा है अब
नई सोच और सही समझ का
पहन लिया उसने परिधान।।
वो सब समझती है
वो सब जानती है
नही रही अब वो अनजान।।
हर गणित समझ आता है उसको
अब जीवन का,
बखूबी आता है समझ उसे मनोविज्ञान।।
अनभिज्ञ नही वो नासमझ नही वो,
और ही कारणों से पहनती है
खामोशी का परिधान।।
कई मर्तबा उसकी चुप्पी
 हो सकती है तूफान से पहले की खामोशी।
कभी भी सक्रिय हो सकता है 
ये सुप्त ज्वालामुखी,
कभी भी टूट सकती है इसकी मदहोशी।।
सबके भले में ही अपनाभला समझने वाली
का भला सोचने की,
 आपकी भी है ज़िम्मेदारी।
देखो करना न देर अधिक,
जाने कब जाने की आ जाए बारी।।
       स्नेहप्रेमचंद










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