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कुछ रह तो नहीं गया(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))


***कुछ रह तो नहीं गया***

बहुत कुछ रह गया मां
रह गई चंचलता मेरी,
रह गए मेरे अधिकार।
*ओढ जिम्मेदारी का भारी दुशाला*
निभाऊंगी कतई अलग किरदार।।

रह गए मेरे नाज नखरे,
रह गई मेरी मनमानी।
नई कलम से नए पेज पर
 लिखनी होगी अब नई कहानी।।

रह गए मेरे तर्क, रह गया वो मेरा 
खुल कर कहना दिल की बात।
क्या क्या और बताऊं मां मैं,
रह गए मेरे अगणित जज़्बात।।

रह गई तेरी लोरी मां,
रह गया पापा का अनोखा प्यार।
रह गया भाई का लाड अनोखा,
रह गई बहना की मनुहार।।

रह गई मेरी वो अलमारी,
जहां तेरे सिले फ्रॉक बड़े करीने से मां तूं सजाती थी।
रह गई वो मेरी पहली गुडिया,
जिसे मैं तकिए के नीचे सुलाती थी।।

मां क्या क्या बताऊं??
 क्या क्या इस आंगन में छोड़ कर,
पड रहा है मुझे जाना।
देर न कर,दहलीज पार करा दे,
दिल के समंदर का कहीं आंखों के जरिए ना हो जाए बाहर आना।।

रह गई मेरी जिज्ञासाएं,
रह गए मेरे कब, क्यों,कैसे,
 कितना जैसे ढेर सवाल।
रह गया वो किसी बात के पूरा ना होने पर मेरा मचाना बवाल।।

रह गया मां अब मेरे ही आंगन में मेरा "अधिकार*
रह गई वो अल्हड़ता,
वो घंटों जाड़े की धूप में अलसाना
रह गया वो अलबेला सा आलस,
तेरे बार बार कहने पर भी ना नहाना

रह गया वो घंटों तेरे संग बतियाना

रह गई वो गलियां जहां जिंदगी का परिचय हुआ था अनुभूतियों से,
जहां जाना था संज्ञा,सर्वनाम और विशेषणों का मधुर तराना।।

रह गया वो प्यारा बचपन,जहां तेरे साए तले मिलता था बस प्यार ही प्यार।।
रह गए वे गली कूचे, वे गलियारे
जहां उजियारों ने किया था जिजीविषा का श्रृंगार।।

बहुत कुछ रह गया मां
इतनी लंबी फेरहिस्त में जाने क्या क्या है शुमार
क्या क्या गिनवाऊं मैं,
अवरुद्ध कंठ है नहीं बोल के कर पाऊंगी इजहार।।

तुझे तो सब कुछ पता है ना मां
तेरी ममता तो रही है मेरे जीवन का आधार।।
फिर मत पूछो "कुछ रह तो नहीं गया*
नहीं बता पाऊंगी बार बार।।
          स्नेह प्रेमचंद


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